अश्लीलता के मंच पर नारी गरिमा का अपमान: देवी से 'आइटम' तक गिरती सोच

निष्पक्ष जन अवलोकन। रामेश्वर विश्वकर्मा रुद्रपुरी।
रूद्रपुर, देवरिया। विवाह समारोहों, मेलों और सार्वजनिक आयोजनों में इन दिनों आर्केस्ट्रा और स्टेज प्रोग्राम के नाम पर खुलेआम अश्लीलता परोसी जा रही है। युवतियों द्वारा अश्लील गीतों पर देहप्रदर्शन और पुरुष दर्शकों द्वारा की जा रही अभद्र टिप्पणियों और हरकतों ने समाज के चिंतनशील वर्ग को गंभीर चिंता में डाल दिया है। इस विषय पर शहर के प्रमुख शिक्षाविदों, समाजसेवियों और कलाकारों ने मीडिया से बातचीत में तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की।
शिक्षाविद प्रधानाचार्य राणाप्रताप सिंह ने कहा कि यह अत्यंत दुखद है कि भारतीय संस्कृति में जहाँ कन्याओं को देवी का रूप माना गया है, वहीं आज आर्केस्ट्रा जैसे मंचों पर उन्हीं कन्याओं को 'आइटम' बनाकर प्रस्तुत किया जा रहा है। उनका मानना है कि यह न केवल कला का अपमान है, बल्कि समाज के नैतिक पतन का संकेत भी है। जाने-माने शिक्षाविद डॉ. रविकान्त मणि त्रिपाठी ने अपनी चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि जब बच्चे और किशोर ऐसी प्रस्तुतियाँ देखते हैं, तो उनके भीतर नारी के प्रति दृष्टिकोण विकृत हो जाता है। उन्होंने कहा कि यही मानसिक विषमता आगे चलकर महिला अपराधों को जन्म देती है। समाजसेवी रामप्रवेश भारती ने टिप्पणी की कि जिस कन्या को हम दुर्गा-काली का रूप मानते हैं, आज उसी के शरीर पर निगाहें गड़ाकर फब्तियाँ कसने वालों की भीड़ तालियाँ पीट रही है। उन्होंने इसे एक सभ्य समाज के लिए शर्मनाक दृश्य बताया और कहा कि यह सब हमारी सामूहिक चुप्पी और तटस्थता का ही परिणाम है।
वरिष्ठ अधिवक्ता नागेन्द्र राव ने स्पष्ट किया कि इस प्रकार के कार्यक्रम केवल सामाजिक नहीं, बल्कि कानूनी दृष्टि से भी आपत्तिजनक हैं। उन्होंने बताया कि सार्वजनिक स्थल पर अश्लीलता फैलाना भारतीय न्याय संहिता की धाराओं के तहत दंडनीय अपराध है, और सरकार को इस पर तुरंत सख्त कानून बनाना चाहिए। प्रख्यात लोकगायिका पूनम मणि त्रिपाठी ने गहरी पीड़ा व्यक्त करते हुए कहा कि लोक गीतों को जिस तरह अश्लीलता में लपेटा जा रहा है, वह हमारी लोक-संस्कृति की हत्या है। उनका मानना है कि लोक गायन जनजीवन की आत्मा है और इसे बाजारू सोच से दूर रखना आवश्यक है। संगीताचार्य नित्यानंद ने कहा कि आजकल संगीत को केवल भौंडे मनोरंजन का माध्यम बना दिया गया है। उन्होंने जोर देकर कहा कि संगीत आत्मा को छूने वाली साधना है, न कि बाजार की वस्तु; और इस मानसिकता को अब बदलना ही होगा।
इन सभी विचारों के बीच एक बात स्पष्ट उभरकर सामने आती है—अब समय आ गया है कि प्रशासन इस विषय पर गंभीरता से विचार करे। समाज के इन प्रबुद्धजनों ने एक स्वर में यह मांग रखी कि ऐसे आयोजनों की सघन निगरानी हो, बिना अनुमति के कार्यक्रमों पर पूर्ण रोक लगे और दोषी आयोजकों तथा कलाकारों के विरुद्ध कठोर दंडात्मक कार्रवाई की जाए। साथ ही, शिक्षा संस्थानों, अभिभावकों और सामाजिक संगठनों को मिलकर सांस्कृतिक मूल्यों की पुनर्स्थापना हेतु प्रयास करने होंगे।