आंग्ल नव- वर्ष (2025)

आंग्ल नव- वर्ष (2025)

आंग्ल नव- वर्ष (2025)

शिशिर है अपने शीर्ष पर पहुंचा, शूल सी चुभन दे रही शीतल पवन।

थरथर कांपती वसुधा हड्डियों तक शीत पहुँचा, पड़ रही कड़ाके की ठर्रन ज्वाल भी खो बैठी तपन।

अंग अंग है हुआ शिथिल, प्राण कर  रहे  हैं कंपन्न।

देख ठंड का कोप भीषण, रोम-रोम कर  रहा तांडव नर्तन।

प्रकृति हुई प्रताड़ित, चतुर्दिक अपकर्ष से लगते हैं।

पाश्चात्य के फेर में पड़कर, कुछ लोग इसे नव- वर्ष कहते है।

कुसुमों पर न भ्रमर गुंजन, दुर्मों नहीं  कपोल हैं नूतन।

बेबस ठिठुरती देह रही, धरा बन गई जैसे गेह-प्रशीतन।

है यह तो मेरा नव वर्ष नहीं, किंचित भी है मुझको हर्ष नहीं।

न ही है मेरी यह संस्कृति, न ही मेरी सभ्यता मुझे यह सिखाती है ।

दुनियां जिसको कह नव वर्ष रही, निज संस्कृति उसे दुर्दांत ऋतु बताती है।

दिखावे में आकर हम सब, उधारी की प्रथा को बस ढोए जा रहे।

होकर धुत मद में सुरा के, निज संस्कृति को हैं खोए जा रहे।

ज़रा सोचो और विचार करो, यह है पतन नहीं तुम्हारा यह उत्कर्ष।

जिसको जो कहना है कहे, किंतु नहीं कह सकता मैं इसको नव- वर्ष ।

   

 बृजेन्द्र वर्मा विकल