स्वामी सहजानन्द सरस्वती जयन्ती (महाशिवरात्रि) पर संन्यासी, चिन्तक, लेखक, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, राष्ट्रवादी नेता व किसान आन्दोलन के प्रणेता रहे दण्डी स्वामी सहजानन्द सरस्वती - डा.ए.के.राय
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निष्पक्ष जन अवलोकन
प्रमोद सिन्हा
गाजीपुर। उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में स्थित गाज़ीपुर की उर्वरा बसुन्धरा से पनपे अनेकों विभुतियों ने अपने विशेष कर्मों से सर्वोच्च मापदंड स्थापित कर अपनी अमिट छाप छोड़ी है। आध्यात्मिक, धार्मिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक व राजनीतिक भूमि ने समय समय-समय पर दार्शनिक, लेखक, समाज सुधारक, इतिहासकार, संयासी, क्रान्तिकारी, राजनेता सहित ऐसे ऐसे लाल पैदा किये हैं, जिन्होंने अपने कर्मों के बल पर पराधीन भारत से लेकर स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत भी राष्ट्रोत्थान में अपने आपको समर्पित करनेवालों की लम्बी फेहरिस्त है। जिसमें आदि शंकराचार्य परम्परा के दण्डी संन्यासी स्वामी सहजानन्द सरस्वती का नाम अग्रणी है। एक संन्यासी के साथ ही साथ, चिन्तक, लेखक, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी तथा राष्ट्र वादी नेता के साथ ही साथ वे किसान आन्दोलन के प्रणेता भी रहे। जिले के जखनियां तहसील अन्तर्गत दुल्लहपुर रेलवे स्टेशन के समीप के देवा ग्राम के सामान्य कृषक परिवार में उन्होंने वर्ष 1889 में महाशिवरात्रि के दिन 22 फरवरी को जन्म लिया था। परिवार ने उन्हें नौरंग राय नाम दिया था। महज तीन वर्ष में उनकी माता के देहान्त के बाद परिजनों की देखरेख में शिक्षा के लिए वर्ष 1898 में मदरसा में गये और अपने विशेष ज्ञान से वर्ष 1901 में प्राथमिक शिक्षा पूरी की तथा वर्ष 1904 की मिडिल परीक्षा में प्रदेश में छठा स्थान प्राप्त किया। बाल्यकाल में अपने अध्ययन के समय भी वे प्रायः सांसरिक बातों से दूर रहते थे। अक्सर वे विरक्त भाव से गांव के पीपल के पेड़ के नीचे बैठ कर ध्यान मग्न हो जाते थे। यह देखकर परिवार के लोग उन्हें महान तपस्वी अन्तर्यामी संत खाकी बाबा के पास ले गये। खाकी बाबा बालक नौरंग की गुढ़ बातों से अत्यन्त प्रभावित हुए। उन्होंने अपने ज्ञान चक्षु से बालक की मनोस्थिति और चैतन्यता देखकर समझ लिया कि सामान्य गृहस्थ परिवार में जन्मा यह बालक अलौकिक है। यह परिवारिक जीवन में बधकर नहीं रह सकता। उन्होंने बालक को मोह माया से स्वतंत्र करने को को कहा। बालक को वैराग्य की तरफ बढ़ते देख घरवालों ने 1905 में उनका विवाह कर दिया लेकिन एक वर्ष में पत्नी की मौत होने के बाद जब घरवालों ने पुनः शादी करने का दबाव बनाया तो 1907 की महाशिवरात्रि के दिन उन्होंने घर त्याग कर काशी पहुँचे और दसनामी संन्यासी स्वामी अच्युतानन्द से दीक्षा लेकर कर संन्यासी बने।अपनी ज्ञान पिपासा के चलते गुरु की खोज में भारतीय सनातन तीर्थों का भ्रमण करते हुए पुनः काशी पहुँचे और 1909 में मां गंगा के पवित्र दशाश्वमेध घाट स्थित श्री दण्डी स्वामी अद्वैतानन्द सरस्वती से दीक्षा लेकर दण्डी स्वामी सहजानन्द सरस्वती का नाम धारण किया। इसके उपरान्त 1912 तक काशी तथा दरभंगा में संस्कृत साहित्य, व्याकरण, न्याय तथा मीमांसा का गहन अध्यायन कर अपनी ज्ञानवृद्धि कर स्वजातीय तथा ब्राह्मण समाज की स्थिति पर व्यापक तथ्य एकत्रित कर काशी पहुंचे और 1914 से तीन वर्षों तक 'भूमिहार ब्राह्मण पत्र' का सम्पादन और प्रकाशन किया। देश के विभिन्न क्षेत्रों का भ्रमण किया और भूमिहार ब्राह्मणों तथा अन्य ब्राह्मणों का विवरण एकत्र कर वर्ष 1916 में 'भूमिहार ब्राह्मण परिचय' नामक पुस्तक का प्रकाशन किया। परतंत्रता की मार झेल रहे देशवासियों की पीड़ा से द्रवित होकर वे बिहार के आरा के सेमरी पहुंचे और 5 दिसम्बर 1920 को पटना में मजहरुल हक के निवास पर ठहरे महात्मा गाँधी से लम्बी राजनीतिक वार्ता कर कांग्रेस में शामिल होकर 1921 में गाजीपुर जिला कांग्रेस के अध्यक्ष बने। अपनी विशिष्ट कार्य शैली व हुकूमत के विरोध पर कारण उन्हें 2 जनवरी 1922 को गिरफ्तार होकर एक वर्ष का कारावास मिला। जेल से छूटने पर सिमरी (भोजपुर) में रहते हुए लोगों की दीन दशा सुधारने हेतु सिमरी तथा आसपास के क्षेत्रों में खादी वस्त्रो का उत्पादन हेतु 500 चर्खे तथा चार करघों को प्रारम्भ कराया। उन्होंने सामाजिक सभाओं में ब्राह्मणों की एकता तथा संस्कृत शिक्षा के उत्थान हेतु लोगों को जागरूक किया। वहीं सिमरी (भोजपुर) में रहकर चार महीने में 'कर्मकलाप' (जन्म से मरण तक के संस्कारों का 1200 पृष्ठों के हिन्दी के विधि सहित विशाल ग्रन्थ की रचना की। वहीं वर्ष 1925 में भूमिहार ब्राह्मण परिचय का परिवर्धन कर 'ब्रह्मर्षि वंश विस्तार' नामक पुस्तक और 1926 में ‘कर्मकलाप' का काशी से प्रकाशन किया तथा संस्कृत शिक्षा के प्रचार किया। उसके बाद बिहार के समस्तीपुर में निवास करते हुए सामाजिक व राजनीतिक गतिविधियों में सक्रिय रहे और वर्ष 1927 में पटना जिले के बिहटा पहुंचे और श्री सीताराम दासजी द्वारा प्रदत्त भूमि में श्री सीताराम आश्रम बनाकर स्थायी निवास बनाकर पश्चिमी पटना किसान सभा की स्थापना कर किसानों के हितार्थ कार्यारंभ किया। किसानों के हित के लिए संघर्षरत रहते हुए 26 जनवरी 1930 को अमहरा (पटना) में नमक कानून भंग के कारण 6 माह का कारावास भुगतना पड़ा। हजारीबाग जेल में रहकर ही 'गीता रहस्य' (गीता पर महत्त्वपूर्ण भाष्य) की रचना की और जेल से लौटकर कांग्रेस तथा किसान सभा के कार्यों में पुनः सक्रिय हो गये। वर्ष 1934 में आये भूकम्प पीड़ितों की सेवा हेतु पूरे बिहार में समिति गठित कर लोगों की सेवा कार्य का संचालन किया। वर्ष 1935 में पटना जिला कांग्रेस के अध्यक्ष के साथ ही प्रादेशिक कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्य व अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के सदस्य चुने गये। वहीं लखनऊ में वर्ष 1936 में आपकी अध्यक्षता में अखिल भारतीय किसान सभा का गठन और प्रथम अधिवेशन सम्पन्न हुआ। वर्ष 1938 में 13 मई से 15 मई तक कोमिल्ला, बंगाल में सम्पन्न अखिल भारतीय किसान सम्मेलन की अध्यक्षता की और 1939 में अखिल भारतीय किसान सभा के महामन्त्री निर्वाचित होकर 1943 तक काम करते रहे। किसान, कांग्रेस व जननेता के रूप में लगातार कार्य किया और 19-20 मार्च 1940 को रामगढ़ (बिहार) में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की अध्यक्षता में आयोजित अखिल भारतीय समझौता विरोधी सम्मेलन के स्वागताध्यक्ष के रूप में जो वक्तव्य दिया उसके लिए तीन वर्ष कैद की सजा मिली। वहीं जेल में रहकर कई पुस्तकों की रचना की। स्वामी जी ने देश की आजादी में किसानों को जोड़कर एक नई दिशा दी। कांग्रेस की नीतियों से मतभेद होने पर 6 दिसम्बर 1948 को कांग्रेस की प्राथमिक एवं अ. भा. कांग्रेस की सदस्यता त्यागकर साम्यवादी सहयोग से किसानों के हित में किसान मोर्चा का संचालन किया। उन्होंने जवाहर लाल नेहरू को गीता का ज्ञान व सुभाष चंद्र बोस को मार्गदर्शन दिया। उनका कर्म क्षेत्र आरा का सेमरी और बिहार के पटना जिला स्थित बिहटा गांव रहा। वहां स्वामी जी आज भी जन-जन में बसे हैं। देश में स्वतंत्रता की लड़ाई से स्वामी जी ने किसानों को जोड़ा इससे आजादी की लड़ाई में एक नया मोड़ आ गया। जीवन के अंतिम समय तक किसानों के प्रति समर्पित रहे। उनकी लोकप्रियता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उन्हें वर्ष 1949 की महाशिवरात्रि को बिहटा (पटना) में हीरक जयन्ती समारोह समिति द्वारा साठ लाख रुपये की थैली भेंट की गयी जिसे उन्होंने दान कर दिया। रामनवमी के अवसर पर 9 अप्रैल 1949 को अयोध्या में सम्पन्न अ. भा. विरक्त महामण्डल के प्रथम अधिवेशन में शंकराचार्य के बाद अध्यक्षीय सम्बोधन दिया। लगातार भागदौड़ और जन चेतना में लगे रहकर यात्रा करने के चलते रक्तचाप से पीड़ित होने पर अप्रैल 1950 में प्राकृतिक चिकित्सार्थ मुजफ्फरपुर के डॉ॰ शंकर नायर से चिकित्सा कराई और फिर अपने अनन्य अनुयायी किसान नेता पं. यमुना कार्यी (देवपार, पूसा, समस्तीपुर) के निवास पर निवास किया और पुनः 26 जून को डॉ॰ नायर को दिखाने आने पर मुजफ्फरपुर में ही पक्षाघात के शिकार बने तथा इकसठ वर्ष की अवस्था में 26 जून की रात्रि 2 बजे प्रसिद्ध वकील पं. मुचकुन्द शर्मा के निवास पर ही मृत्यु हो गई। अगले दिन उनके शव का पटना के गाँधी मैदान में लाखों लोगों द्वारा अन्तिम दर्शन किया गया। डॉ॰ महमूद की अध्यक्षता में आयोजित शोकसभा में नेताओं द्वारा श्रध्दांजलि अर्पित की गयी। अगले दिन 28 जून 1950 को बिहार के मुख्यमन्त्री डॉ॰श्रीकृष्ण सिंह विभिन्न नेताओं के साथ अर्थी लेकर श्री सीताराम आश्रम, बिहटा पटना पहुँचे जहां नम आंखों से समाधि दी गयी। आज वे हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनके विचार आज भी राष्ट्रोत्थान के लिए प्रेरणास्रोत हैं।